बिहार की बेटी ने लंदन छोड़ सिवान को चुना, 6000 लोगों को दिया रोजगार जिनमें 31 राष्ट्रीय खिलाड़ी
जिस समय हर पढ़ने वाले बच्चे की चाहत डॉक्टर-इंजीनियर-वकील-सीए बनने की है, वहां देश में 4 प्रमुख शहर में 4 बड़े स्कूल चलाने वाले की बेटी सेतिका सिंह ने कॅरियर के रूप में समाज सेवा चुना। इसके लिए उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस से सामाजिक नीति और विकास (विशेष रूप से एनजीओ) में ग्रेजुएशन किया। फिर सिर्फ 24 साल की उम्र में परिवर्तन लाने की ठानी। बिहार में कभी शहाबुद्दीन के नाम से पहचाने जाने वाले सीवान के जीरादेई ब्लाक के अपने पैतृक गांव नरेन्द्रपुर से बदलाव की शुरुआत की।
पिता संजीव कुमार तक्षशिला एजुकेशन सोसाइटी के तहत डीपीएस स्कूल और परिवर्तन नाम से एनजीओ चलाते थे। बेटी ने मुख्य रूप से एनजीओ का जिम्मा लिया। पहले चरण में उन्होंने 5 किमी के दायरे में आने वाले 21 गांवों को चुना। मकसद था-गांव में उन्हें वह सब कुछ मिले, जिसके लिए कोई भी बड़े शहर जाता है। इसमें सबसे पहले खाने-कमाने का साधन। इसका भी तरीका ऐसा कि जिसे जिस काम में रुचि, उसे उसी काम के लिए तैयार करना और फिर उसे उसमें कमाई की राह दिखाना। फिर चाहे वह कोई कामगार हो, खिलाड़ी, कलाकार या किसान।

बिहार में इस तरह के काम की ज्यादा जरूरत
ऐसे यहां के 6 हजार से अधिक लोगों की तो लिस्ट है, जो किसी न किसी काम, खेलकूद, गायन-अभिनय आदि के जरिए गांव में ही अपनी रोजी रोटी सम्मान के साथ हासिल कर रहे हैं। सेतिका पढ़ाई के दौरान ही शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था प्रथम से इंटर्नशिप के लिए जुड़ीं।

यहीं से तय किया कि बिहार में इस तरह के काम की ज्यादा जरूरत है। हाल ही में सबरंगी नामक एक पहल शुरू की, जिसका उद्देश्य महिलाओं के जीवन में सब रंग भरना है। खासकर महिलाओं के तैयार उत्पाद को उचित बाजार दिलाना इसका मकसद है। पेश है सेतिका सिंह से मीडिया के वो 5 सवाल जिसके जवाब ने 21 गाँवों में बदलाव लाया।
मुंबई-लुधियाना में अच्छी पगार मिल रही तो गांव क्या करेंगे?
सबसे बड़ा काम पड़ोस के गांव जमालहाता में दिखा। ये गांव कभी हैण्डलूम का बड़ा केंद्र था। यहां की चादर प्रसिद्ध थी। समय के साथ यह गांव हैण्डलूम की कब्रगाह बन गया। बुनकर मुंबई और लुधियाना चले गए। परिवर्तन के जरिए गांव के लूम जी उठे हैं। अब लोगों के पास काम है। सैकड़ों लूम की खट-खट की शुरुआत नरेंद्रपुर के एक कमरे से ही हुई।
इसमें युवाओं को ट्रेनिंग देने के साथ मुंबई-लुधियाना चले गए लोगों को भविष्य की तस्वीर दिखाई गई। न सिर्फ कपड़े बनाने, बल्कि उसके लिए मार्केट तैयार करने के लिए डीपीएस के अपने सभी स्कूलों में यूनिफार्म में खादी को अनिवार्य कर दिया गया।

अब उनको देखते हुए कई अन्य स्कूलों में भी खादी यूनिफार्म अपनाया है। साथ ही परिवर्तन परिसर में भी लूम की ट्रेनिंग, सिलाई और उनकी मार्केटिंग की पूरी ट्रेनिंग लगातार चल रही है। इनमें सबसे बड़ी संख्या महिलाओं की है।
पढ़ाई नहीं की, बचपन खेलकूद में ही बीत गया अब क्या करें?
ये कोई कमी नहीं, ये तो उस युवा की खूबी है। ये समझाने, उसे तराशने और फिर स्टेट और नेशनल स्तर तक खिलाड़ी को ले जाने की राह परिवर्तन ने खोली। इसके लिए कबड्डी, साइकलिंग और फुटबाल के स्टेट लेवल को कोच से ट्रेनिंग दिलवाई।
आज तक फुटबाल में 15, साइकलिंग में 9, कबड्डी में 7 खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचे। सबसे बड़ा काम ये कि गांव में हर बच्चे में संदेश कि खेलकूद से भी आगे बढ़ सकते हैं। जिसकी पुष्टि नरेंद्रपुर के स्टेडियम में कबड्डी और फुटबाल के मैच खेल रहे बच्चों को देखकर ही होती है।

नचनिया-बजनिया आज की दुनिया में क्या करेंगे?
जो अच्छा गाना गा सकते हैं या अभिनय कर सकते हैं? बिहार के गांव में उन्हें आवारा या नचनिया-बजनिया ही कहा जाता है। नरेंद्रपुर और उसके आसपास के गांव में इसकी परिभाषा बदली। इन सभी को ट्रेनिंग देकर लोक कलाकार के रूप में बदल दिया।
यहां ट्रेनर इन आसपास के गांवों से ही युवकों को चुनते हैं। भिखारी और विदेशिया के नाटकों का मंचन करवाते हैं। ऐसे ही कलाकारों को तक्षशिला के जरिए पटना समेत कई शहरों में मंच और काम मिला है।

खेती तो घाटे का ही सौदा क्यों न कुछ और करें?
खेती तो यहां के खून में है। लगभग हर ग्रामीण ही किसान है, लेकिन खिलाड़ी की तरह इन्हें नहीं पता कि खेलते कैसे हैं? यानी खेती करते कैसे हैं? तकनीक और प्रयोगशाला के जरिए किसानों को बताया जा रहा कि कब कौन सी खेती करनी है।
जैसे अगर समय पर बारिश या मौसम में बदलाव हो तो कौन से बीज और न हो तो कौन से बीज। किस मिट्टी में कौन सी खेती। अपने प्रयास से परिवर्तन कैंपस में मौसम विभाग ने देश का 211वां मौसम पूर्वानुमान यंत्र लगाया है। इससे किसानों को समय से मौसम की भविष्यवाणी भी मिल जाती है। इससे उनकी फसल उतने ही खेत में सवा से डेढ़ गुनी तक बढ़ी है।

पिता व मां दोनों काम करेंगे, तो बच्चे कौन देखेगा?
इन सबके साथ सबसे बड़ी समस्या यहां की गरीबी है। अगर पिता के साथ मां भी काम करेगी तो बच्चे क्या करेंगे? इस सवाल के जवाब में परिवर्तन कैंपस में खुले आंगनबाड़ी केंद्र, स्कूल और साइंस प्रयोगशाला। जिस उम्र का बच्चा, उसी हिसाब से उसकी पढ़ाई। अगर पिता बिहार से बाहर काम पर चले गए हैं।
मां ने भी काम शुरू कर दिया तो बच्चे यहीं पास में ही हर आधुनिक पढ़ाई से रूबरू होंगे। उनके लिए साइंस लैब, कम्प्यूटर लैब, हर स्तर के बच्चों के लिए अलग-अलग लाइब्रेरी भी एक ही परिसर में मौजूद है। समय-समय पर डीपीएस के टीचर भी इन बच्चों को गाइड करते हैं। प्रोजेक्ट वर्क में डीपीएस के बच्चे भी गांव में अपने अनुभव इन बच्चों के साथ बांटते हैं।